"अहम् ब्रह्मास्मि" के महान उद्घोषक : श्री निसर्गदत्त महाराज
श्री निसर्गदत्त महाराज: एक महान जाग्रत जीवात्मा
withrbansal , दोस्तों, आप में से शायद बहुत कम लोगों के द्वारा ही श्री निसर्गदत्त महाराज का नाम सुना होगा लेकिन अध्यात्म में रूचि रखने वाले लोगो के मध्य एक जाना पहचाना नाम है -श्री निसर्गदत्त महाराज | कौन है,श्री निसर्ग दत्त महाराज ? महान आध्यात्मिक उपदेशक एवं दार्शनिक श्री निसर्गदत्त महाराज उर्फ़ बीड़ी बाबा का नाम उन गिने-चुने लोगों में शामिल किया जाता है जिन्हें वास्तविक रूप में आत्मज्ञान प्राप्त हुआ है | गौतम बुद्ध,महावीर स्वामी के उपरांत आधुनिक काल के भगवान श्री महर्षि रमण,जे0कृष्णमूर्ति के समान ही आध्यात्मिक दुनियाँ में श्री निसर्गदत्त महाराज का नाम आदर से लिया जाता है |
अध्यात्म में आत्म साक्षात्कार हेतु धारणाओं का बहुत महत्व है | जिस प्रकार भगवान श्री महर्षि रमण के द्वारा आत्म साक्षात्कार के लिए साधकों को "मैं कौन हूं" धारणा देते हुए कहा कि साधकअपने अंतर्मन की गहराइयों में उतर कर अपने आप से प्रश्न करें कि "मैं कौन हूं"? जब आप " मैं " के स्त्रोत की तलाश करेंगे तो आपको बाकी दूसरे विचारों से मुक्ति मिल जाएगी | इसी प्रकार श्री निसर्गदत्त महाराज- "मैं हूं " के भाव में उतरने के लिए कहते हैं | वे कहते है -किसी खोई हुई अथवा विस्मृत वस्तु को जिस प्रकार ढूंढते हैं ,वह वस्तु तब तक तुम्हारे मन में बनी ही रहती है जब तक तुम पुनः उसे स्मरण नहीं कर लेते हो | होने का "मैं हूं "भाव सबसे पहले उदित होता है,अपने आप से पूछो कि यह "मैं "कहां से आता है,कैसे आता है | जब मन इस "मैं हूं " में स्थिर होता है और निश्चल बना रहता है तब तुम एक ऐसी अवस्था में प्रविष्ट हो जाते हो जिसका वर्णन तो नहीं कर सकते पर उसे अनुभव किया जा सकता है |
श्री निसर्गदत्त महाराज कहते हैं- " मैं हूं " इस विचार के अतिरिक्त अन्य सभी विचारों को अस्वीकृत कर दो, प्रारंभ में मन विद्रोह करेगा परंतु धैर्यपूर्वक सतत लगे रहने पर यह झुक जाएगा और शांत हो जाएगा | एक बार तुम शांत हो गए तो अन्य सब बिना तुम्हारे हस्तक्षेप किए ही स्वतः सहजता से अपने आप हो जाएगा |
श्री निसर्गदत्त महाराज का जीवन परिचय-
श्री निसर्गदत्त महाराज का जन्म हनुमान जयंती के दिन 17 अप्रैल 1897 को तत्कालीन बम्बई में एक निर्धन परिवार में हुआ था | हनुमान जयंती के दिन पैदा होने के कारण इनके माता-पिता श्रीमती पार्वतीबाई एवं शिवराम पंत के द्वारा इनका नाम "मारुति" रखा गया | इनका बचपन महाराष्ट्र के सिंधुदुर्ग जिले के एक छोटे से गांव काण्डल गांव में व्यतीत हुआ जहां इनके पिता खेती करते थे | बालक मारुती गरीबी एवं परिवार के जीवन यापन हेतु इधर-उधर घूमते रहने के कारण औपचारिक शिक्षा से वंचित ही रहे | गांव के ही एक ब्राह्मण एवं धार्मिक वक्ता "श्री विष्णु हरीभाऊ गोरे " जो कि उनके पिता के घनिष्ठ मित्र भी थे, का उन पर गहरा प्रभाव पड़ा | 18 वर्ष की उम्र में इनके पिता के निधन हो जाने पर चार भाइयों एवं दो बहनों युक्त इनका बड़ा परिवार आर्थिक संकट में आ गया |
बम्बई आकर पहले नौकरी फिरअपना व्यवसाय शुरू कर आर्थिक सुरक्षा प्राप्त की | "सुमतिबाई" से विवाह,चार बच्चे एवं साधारण गृहस्थ जीवन चल रहा था कि उनके जीवन में निर्णायक मोड़ आ गया | एक दिन संध्या को उनके मित्र "यशवंतराव बागकर "उन्हें "नवनाथ संप्रदाय" के आध्यात्मिक गुरु "श्री सिद्ध रामेश्वर महाराज" के पास ले गए | गुरु ने उन्हें मंत्र दीक्षा दी और ध्यान के निर्देश दिए |अभ्यास के प्रारंभ से ही उन्हें अनेक सूक्ष्म एवं दिव्य अनुभव होने लगे | मानों उनके भीतर सचमुच ही चैतन्य के धरातल पर एक विस्फोट सा हुआ और उनके अंदर वैश्विक सर्वव्याप्त चेतना का,शाश्वत जीवन का आविर्भाव हो गया | मारुति के नाम से जाने वाले उस साधारण से व्यवसायी की पहचान ही मिट गई और उसका स्थान श्री निसर्गदत्त महाराज के नाम से प्रसिद्ध दिव्य सत्ता ने ले लिया |
आत्मज्ञान प्राप्त होने के बाद वे अपने परिवार एवं व्यवसाय को छोड़कर शाश्वत जीवन की खोज में नंगे पैर हिमालय की ओर चले गए | कुछ समय पश्चात जब उन्हें यह एहसास हुआ कि शाश्वत जीवन की प्राप्ति एवं खोज कोई ऐसी वस्तु नहीं है जिसके लिए यहां-वहां भटकना आवश्यक हो,यह तो उनके पास ही थी,वह वापस घर आ गए |
"मै देह हूँ " इस विचार से परे चले जाने पर उन्हें ऐसी अत्यंत आनंदकारी,शांतिपूर्ण और शाश्वत अवस्था की प्राप्ति हो गई जिसकी तुलना में अन्य सब कुछ तुच्छ हो गया | 1951 से उन्होंने अपने घर पर ही शिष्यों एवं आध्यात्मिक जिज्ञासुओं के प्रश्नों का उत्तर देना प्रारंभ कर दिया जो कि उनके 8 सितंबर 1981 को ब्रह्मलीन होने तक जारी रहा |
श्री निसर्गदत्त महाराज के शिष्यों एवं जिज्ञासुओ के साथ समय-समय हुए संवादों का संक्षिप्त संकलन एक पुस्तक "आई एम दैट ( I AM THAT )" के रूप में उनके शिष्यों द्वारा प्रकाशित किए गए | यह "अद्वैत दर्शन" पर एक महान पुस्तक मानी जाती है | बाद में इसका हिंदी संस्करण "अहम् ब्रह्मास्मि " के नाम से जारी किया गया |
"मैं हूं" की धारणा -
अध्यात्म में साधकों के मध्य आत्मअनुसन्धान में सहायक कई प्रकार की धारणाएं प्रचलित हैं | श्री निसर्गदत्त महाराज कहते हैं-जब तक मनुष्य आत्मसाक्षात्कार नहीं कर लेता है,आत्मवस्तु का ज्ञान नहीं पा लेता है केवल तभी तक यह सारी विचित्र कथाएं,काल्पनिक धारणाएं प्रदान की जाती है |
यह भी पढ़े -क्या नियति (destiny) को बदला जा सकता है ?
"मैं हूं " भी एक ऐसी ही धारणा है,इससे मूल्यवान अन्य कोई धारणा नहीं है | साधक को चाहिए कि वह उन्हें पूरी गंभीरता से महत्व दें,क्योंकि वह सर्वोच्च वास्तविकता की ओर संकेत करती है ,अन्य समस्त धारणाओं या विचारों के निरसन हेतु यह महत्वपूर्ण है | श्री निसर्ग दत्त महाराज इस बात का आग्रह करते हैं कि आप देह और मन की कार्यप्रणाली का दृढ़ता एवं गहन एकाग्रता से अध्ययन करें ताकि आप इस सत्य को पहचान सके कि आप उनमें से कोई भी वस्तु नहीं है और इस प्रकार उनसे मुक्त हो सके |
वे कहते हैं कि आप पूर्ण दृढ़ता से "मैं हूं" के भाव को पकड़े रहे | आप "मैं हूं" पर पुनः पुनः तब तक लौटते रहे जब तक कि यह आपका स्थाई आश्रय नहीं हो जाता,जब तक कि "मैं हूं "की सीमितता रूपी अहंकार मिट नहीं जाता | केवल तभी आत्म साक्षात्कार अनायास ही घटित हो जाता है | जब आप मन को "मैं हूं" होने मात्र के भाव पर दृढ रखते है तो "मैं यह हूँ " विलीन हो जाता है,केवल "साक्षी हूँ " शेष रहता है और फिर वह भी "मैं सर्व हूँ" में निमज्जित हो जाता है |
श्री निसर्गदत्त महाराज कहते हैं- जब मैं प्रथम बार अपने गुरू से मिला तो उन्होंने मुझे मंत्र दीक्षा देने के साथ-साथ ध्यान की विधि भी बताई | उन्होंने मुझसे कहा कि तुम वह नहीं हो जो तुम स्वयं को समझ रहे हो,तुम्हें यह पता करना चाहिए कि वास्तविकता में तुम क्या हो | "मैं हूं " के भाव पर ध्यान रखकर ही तुम अपने असल रूप को प्राप्त कर सकते हो | मैंने उनकी बातों का अक्षरशः पालन किया,फलस्वरूप बहुत कम समय में परिणाम सामने है |
श्री निसर्ग दत्त महाराज की वार्ताओं पर आधारित मूल पुस्तक मराठी में है,जिसका "आई एम दैट" ( I AM THAT ) के नाम से अंग्रेजी अनुवाद उनके शिष्य "मोरिस फ्रीडमैन" द्वारा किया गया है | जैसे ही उनकी पुस्तक का अंग्रेजी अनुवाद "आई एम दैट" प्रकाशित हुआ, श्री निसर्गदत्त महाराज आध्यात्मिक क्षितिज पर छा गए | मुंबई की निर्धन बस्ती में स्थित उनकी कुटिया पर देसी-विदेशी भक्तों एवं जिज्ञासुओं का मेला सा रहने लगा |
निसर्ग-योग-
श्री निसर्गदत्त महाराज की आत्म-साक्षात्कार विधि को ही निसर्ग-योग या सहज-योग कहा जाता है | निसर्ग का शाब्दिक अर्थ "प्राकृतिक अवस्था" से लिया जाता है | प्रत्येक जिज्ञासु मनुष्य के समक्ष कतिपय प्रश्न शाश्वत रूप से अस्तित्त्व में है -मैं कहाँ से आया हूँ ? कौन हूँ मैं ? मेरा कल क्या होगा ? इस तरह के प्रश्नों का न तो कोई आदि है और न ही अंत है साथ ही इनके समाधान हो जाने से ज्यादा महत्त्वपूर्ण कुछ भी नहीं है |
निसर्ग-योग में इस हेतु मानव मन के "मैं" को सीढ़ी माना गया है | सामान्यतया भावनाओं एवं अवधारणाओं के सम्बन्ध में सर्वाधिक सारगर्भित शब्द जिसका प्रयोग किया जाता है वह है -"मैं " | मन का सदैव यह प्रयास रहता है कि वह प्रत्येक वस्तु को इसके अन्तर्गत रखने लगता है,देह को भी और परम तत्व को भी | इसलिए मानव जीवन में "मैं " से बड़ा कोई भाव नहीं है | निसर्ग-योग में इस "मैं "रूपी शक्तिशाली भावना की ही गहन खोजबीन और परीक्षा की जाती है | चूँकि इस "मैं "भाव की कोई शाश्वत सत्ता नहीं है इसलिए इसका कोई ऐसा उदगम अवश्य होना चाहिए जहाँ से यह उत्पन्न होती है और लौट कर पुनः वहीं अस्त हो जाती है | यह उदगम ही शाश्वत है | काल के व्यवधान से परे के इस उदगम को ही श्री महाराज "आत्म-स्वभाव" ,"आत्मसत्ता" और "स्वरूप" कहते है | श्री निसर्गदत्त महाराज कहते है - आप वास्तविकता तक पहुँचने के लिए कोई भी तरीका अपनाये,यह "मैं हूँ " की भावना अंततः वास्तविकता के प्रवेश द्वार पर अवश्य ही विद्यमान होती है | इस "मैं हूँ " में दृढ़ होकर रहना ही निसर्ग-योग है |
तो दोस्तों ,यदि आप अध्यात्म में रूचि रखते है तो एक बार "श्री निसर्गदत्त महाराज" को अवश्य पढ़े तभी आपको पता चल पायेगा कि किस प्रकार से एक साधारण मानव भी अध्यात्म की ऊंचाइयों को प्राप्त कर सकता है | Withrbansal
@@@@@@
बहोत ही सूंदर विचार है
जवाब देंहटाएं