भगवान श्री रमण महर्षि : पवित्र लाल पर्वत के महान योगी
श्री रमण महर्षि- अरुणाचल के महान योगी
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दोस्तों, भारत की इस पवित्र धरा पर समय-समय पर कई महापुरुषों द्वारा अवतरित होकर न केवल भारतवर्ष अपितु संपूर्ण विश्व को मानवता,अध्यात्म,धर्म,प्रेम,स्वतंत्रता एवं सद्भाव का पाठ पढ़ा कर मानव जीवन को समृद्ध बनाने में महती योगदान किया है | ये महापुरुष आज भी हमारे दिलों पर राज कर रहे हैं | बुद्ध,कबीर,नानक एवं गांधी जैसे आध्यात्मिक संतों एवं महापुरुषों की इसी परंपरा में आज हम चर्चा करेंगे आधुनिक काल के महान ऋषि,महान संत,वैदिक संस्कृति के प्राण रचयिता भगवान श्री रमण महर्षि की |

💓महर्षि रमण का जीवन परिचय

अरुणाचल पर्वत

"अरुणाचल के महायोगी" के नाम से विख्यात महान भारतीय दार्शनिक एवं संत श्री रमण महर्षि का जन्म दक्षिण भारत में तमिलनाडु के तिरुचलि नामक स्थान पर 30 दिसंबर 1879 को भगवान शिव के पवित्र "अद्र दर्शन पर्व "के दिन श्री सुंदर अय्यर वकील एवं अलगम्माल के द्वितीय पुत्र के रूप में हुआ था | जिनका मूल नाम वेंकटरमन अय्यर रखा गया |
💔महर्षि रमण को आत्मज्ञान - सत्रह वर्ष की आयु में अपने कमरे में अकेले बैठे हुए आत्मज्ञान प्राप्त करने के अपने अनुभव को स्वयं के द्वारा साझा किया गया है |
महर्षि रमण स्वयं बताते हैं कि-
" उस दिन मै अपने कमरे में अकेला बैठा था, तभी मेरे दिमाग में अचानक मृत्यु का एक अजीब सा भय समा गया हालांकि उस समय मेरा स्वास्थ्य बिल्कुल ठीक था परंतु मुझे ऐसा आभास होने लगा कि मैं मरने वाला हूँ, वह केवल मानसिक अनुभूति थी ,क्योंकि उस समय मरने का ऊपरी तौर पर कोई कारण मौजूद नहीं था परंतु यह धारणा मेरे मन पर हावी हो गई और मैं इस भावी घटना के लिए तैयारी करने लगा |

यह शरीर मर चुका है इसेअब जलाकर राख में बदल दिया जाएगा, लेकिन इस शरीर के साथ क्या मैं भी मर गया हूं लेकिन मैं तो अपने आपको ,अपनी आवाज को भी पूर्णतया महसूस कर रहा हूं तो वह क्या है जो मर रहा है ? कुछ समय बाद मै गहरे ध्यान में लीन हो गया | उसके पश्चात आभास हुआ कि मैं इस शरीर से परे एक आत्मा हूं,आत्मा को मृत्यु भी नहीं मार पाती है,मैं अमर आत्मा हूं | मृत्यु का भय तिरोहित हुआ और उसी क्षण से मैं अखंड आत्मा में लीन हो गया |" इस प्रकार वेंकटरमन बिना किसी साधना के आध्यात्मिकता के शिखर पर पहुंच गया | यह शायद उनका प्रारब्ध ही था |

इसके बाद तो युवा रमण,योगी रमण में बदल गए | अरुणाचल से बाल्यपन के आकर्षण ने घर छोड़ने का फैसला कराया,अनेकों कठिनाइयां,भूख,प्यास सहते हुए तिरुवन्नम्मलाई स्थित अरुणाचलेश्वर मंदिर पहुंचे | पाताललिंगम में समाधि एवं ध्यान का बरसो अनुभव लेने के बाद अरुणाचल पर्वत स्थित "विरुपाक्ष गुफा" को अपना अध्यात्मिक साधना का केंद्र बनाया | बाद में वहीं पर उनके शिष्यों द्वारा रमण आश्रम एवं मंदिर का निर्माण कराया जहां योगश्री 14 अप्रैल 1950 को मृत्यु तक अपने आत्मज्ञान एवं तपोबल से अपने देशी एवं विदेशी भक्तों की शंकाओं एवं समस्याओं का समाधान,आत्मबोध,ज्ञान,शांति एवं प्रसन्नता प्रदान करते रहे |
महर्षि कोई परंपरावादी रूढ़िगत योगी नहीं थे, इनके द्वारा न तो योग पद्धति का अध्ययन किया गया न ही उन्होंने अपना कोई गुरु बनाया | केवल अपने भीतरी मार्ग के अनुसरण से आत्मज्ञान प्राप्त किया गया |

रमण आश्रम में आम से लेकर खास तक अनेकों प्रकार के लोग अपने दुख पीड़ा एवं समस्या लेकर आते रहते थे | महर्षि किसी बात का उत्तर नहीं देते थे क्योंकि मौन रहना उनकी आदत थी | वह दिन में गिने-चुने शब्द ही बोलते थे | महर्षि बोलने की अपेक्षा परेशान व्यक्ति को चुपचाप देखते रहते रहते थे | धीरे-धीरे उसका रोना चीखना बंद हो जाता था | दो घंटे बाद वह व्यक्ति अधिक शांत व मजबूत बनकर लौटता था | यह उनकी टेलीपैथिक उपचार पद्धति थी |
रमण महर्षि एक कुशल धनुर्धर भी थे | उनके आश्रम में चीते, विषैले कोबरा जैसे सभी पशु-पक्षी,जीव-जंतु आदि किसी व्यक्ति को हानि नहीं पहुंचाते थे | महर्षि उन्हें सम्मानित ढंग से आप कह कर पुकारते थे |

महर्षि की सादगी,सरलता एवं फक्कड़पन पर टिप्पणी करते हुए अपनी पुस्तक "ए सर्च इन सीक्रेट इंडिया" में प्रसिद्ध ब्रिटिश दार्शनिक,पत्रकार एवं लेखक "पॉल ब्रन्टन" लिखते हैं -
"महर्षि बिल्कुल शांत है, पर वे मुझे बहुत ध्यान से देख रहे हैं ,उनके पास फर्श पर पानी का जग तथा उनकी बांस की छड़ी रखी है | उनके पहने हुए लंगोट के अतिरिक्त उनके पास यही केवल दो वस्तुएं हैं | हम पश्चिमवासियों की अर्जनशीलता पर महर्षि की यह क्या शानदार मौन टिप्पणी है | "

जैसे ही पश्चिम में 1931 में "पॉल ब्रन्टन" की पुस्तक "ए सर्च इन सीक्रेट इंडिया" प्रकाशित हुई,महर्षि रमण संपूर्ण यूरोप के आध्यात्मिक रूप से सजग लोगों के मध्य चर्चा का विषय बन गए | पॉल ब्रंटन के अलावा प्रसिद्ध स्विस मनोवैज्ञानिक "कार्ल गुस्ताव जुंग ", विख्यात उपन्यासकार "समरसेट मॉम ", "महान फ्रेंच फोटोग्राफर हेनरी कार्तियर ब्रेसन ", प्रसिद्ध लेखक "आर्थर ऑस्बोर्न "जैसे न जाने कितने ही विदेशी विद्वान महर्षि से आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने न केवल अरुणाचल स्थित "रमण आश्रम " आये अपितु इनके द्वारा महर्षि रमण से प्राप्त ज्ञान एवं विवेक को पुस्तकों एवं फिल्मो में धरोहर क़े रूप में भी उतारा |
💓महर्षि रमण की शल्य क्रिया -

अंत समय में जब महर्षि कैंसर से ग्रस्त हो गए तो शल्यक्रिया किया जाना था | महर्षि द्वारा मूर्च्छावस्था में लाने से इंकार कर दिए जाने पर बिना एनेस्थिया के सर्जरी प्रारम्भ की गई | शल्य क्रिया के दौरान चिकित्सकों के द्वारा बीमार कोशिकाओं को काटकर शरीर से अलग कर दिया जाता है | इस प्रक्रिया में यदि गलती से स्वस्थ कोशिकाओं को काटा जाता है तो पीड़ा से रोगी के शरीर में हल्की सी हलचल होती है जिससे चिकित्सकों को पता चल जाता है | लेकिन यहां उनके सामने समस्या उत्पन्न हुई कि महर्षि को कुछ महसूस नहीं होता था | महर्षि बोले- "जिस शरीर पर तुम शल्यक्रिया कर रहे हो ,वह मैं नहीं हूं, मैंने अपने आप को शरीर से अलग कर रखा है, पीड़ा तो शरीर को होती है |
💔रमण महर्षि की शिक्षाएं-

@ मैं कौन हूं ? यही महर्षि की पूरी खोज थी, यही उनकी यात्रा और यही मंजिल थी | उनके संदेश का सार यही है- "स्वयं से" मैं कौन हूं" यह प्रश्न लगातार पूछते रहो | क्या मैं मांस,रक्त और हड्डी से बना शरीर हूं ? क्या मैं मन,विचारों और भावनाओं से बना हूं ?अपने व्यक्तित्व का विश्लेषण करते रहो ,देखो कि "मैं " का विचार कहां से आरंभ होता है | लगातार ध्यान का अभ्यास करते रहो | अपने ध्यान को भीतर की ओर केंद्रित करो |
एक दिन विचारों का चक्र धीमा हो जाएगा और फिर भीतर से प्रेरणा उत्पन्न होगी उसका अनुसरण करो | अपने विचारों को रुक जाने दो, आखिरकार तुम्हें अपना लक्ष्य मिल जाएगा |
आप इस समस्या को सुलझाने के बाद ही अन्य सभी समस्याओं को सुलझा सकेंगे | "संपूर्ण दुनिया का आधार आप स्वयं है,इसलिए दुनिया को जानना है,तो पहले खुद को जानना होगा|

@ हम सब लोग खुशी चाहते हैं,दुखों से बचना चाहते हैं | खुशी भी ऐसी चाहते हैं जिसका कभी अंत ना हो | ऐसी इच्छा रखना कोई गलत बात नहीं है,इसलिए हम किसी न किसी वस्तु चाहे वह अच्छा खाना-पीना, मनोरंजन,धर्म या किसी भी अन्य जरिए से खुशी प्राप्त करना चाहते हैं,लेकिन यह खुशी अस्थाई है | लेकिन इसका तात्पर्य यह भी है कि मनुष्य की प्रकृति आनंद पर आधारित है | खुशी की तलाश वास्तव में मनुष्य के द्वारा अवचेतन रुप से की जा रही स्वयं की ही तलाश है और स्वयं ही एकमात्र ऐसी वस्तु है जो कभी नष्ट नहीं होती है,इसलिए व्यक्ति को जब उसकी प्राप्ति हो जाती है तो उसे असीम आनंद का अनुभव होता है | प्रत्येक मनुष्य चेतन-अवचेतन रूप से खुशी की ही तलाश कर रहा है,यह तलाश उसका जन्मजात गुण है लेकिन वह यह नहीं जानता कि वह स्वयं की ही तलाश कर रहा है |" हमें स्थाई रूप से सच्ची प्रसन्नता और आनंद तभी प्राप्त हो सकता है जब हम अपने भीतर के सत्य को जान ले |

तो दोस्तों,निष्कर्षतः महर्षि की शिक्षाओं का सार वही है जो--
गैलीलिओ के गुरु ने कहा है- "जो अपने जीवन को बचाने का प्रयास करेगा,वह उसे गंवा देगा और जो खुद को खोने की कोशिश करेगा,वही स्वयं को बचा सकेगा | "
अंत में धन्य है वह "अलगम्माल माँ "जिसने भारत भूमि को भगवान महर्षि रमण जैसा तपस्वी दिया | आज भी वे अपने भौतिक शरीर के त्याग के बाबजूद रमण आश्रम में काम कर रहे है ,कई लोगो के द्वारा आश्रम में उनकी उपस्थिति को महसूस किया जाता है |
दोस्तों ,आप में से कोई कभी गए है रमण आश्रम ,कमेंट में शेयर करे |
withrbansal
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